!! जय श्री महाकाल !! क्या है "कालसर्प योग" सामान्यतः जन्म कुंडली के बाकी सात ग्रह राहु और केतु...
मंगल ग्रह यदि जन्मकुंडली के लग्न, चतुर्थ भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव, द्वादश भाव में हो तो कुंडली को...
पितृदोष और कालसर्पदोष का सबसे प्राचीन स्थान सिद्धवट घाट है यहीं पर पितरों को मुक्ति प्रदान होती है इसलिए पित्र दोष सिद्धवट घाट पर होता है
महर्षि नारद के अनुसार- अनेन विधिनां सम्यग्वास्तुपूजां करोति य:। आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धान्यं लभेन्नदर:॥
यदि लड़के अथवा लड़की की कुंडली में सप्तम भाव अथवा बारहवां भाव क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो अथवा शुक्र...
महामृत्युंजय मंत्र का जप क्यों किया जाता है? शास्त्रों और पुराणों में असाध्य रोगों से मुक्ति और अकाल मृत्यु....
हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक भगवान शिव का पूजन करने से सभी मनोकामनाएं शीघ्र ही पूर्ण होती हैं।
बृहस्पति और राहु जब साथ होते हैं या फिर एक दूसरे को किन्ही भी भावो में बैठ कर देखते हो, तो गुरू चाण्डाल..
काल सर्प दोष क्या है? कुंडली में कालसर्प दोष कैसे बनता है और इस योग को कालसर्प योग क्यों कहा जाता है?
कालसर्प योग, मूलतः संस्कृति के दो शब्दों से मिलकर बना है जिनका अर्थ भिन्न भिन्न कर्मकांडी विद्वानों ने निकाला है, ये दो शब्द है ‘काल’ एवं ‘सर्प’, काल के भी दो अर्थ है, प्रथम मृत्यु और दूसरा है समय, इसी प्रकार से सर्प शब्द के भी दो अर्थ है, प्रथम है सर्प अर्थात नाग और दूसरा है रेंगना, अब हम अगर दोनों शब्दों को संयुक्त करते है तो चार अर्थ निकलते है प्रथम सर्प द्वारा मृत्यु, दूसरा समय पर नाग का प्रकोप, तीसरा बहुत ही दुर्दशा के साथ जीवन जीना, यही समय का रेंगना, और चौथा है मृत्यु का धीरे धीरे व्यक्ति को अपने निकट बुलाना किन्तु बहुत कष्टों के साथ, इस प्रकार किसी भी अर्थ में यह उस व्यक्ति के लिए शुभ नहीं है जिसकी कुंडली में कालसर्प योग बना हुआ है।
काल सर्प पूजा इन उज्जैन
ज्योतिष का अध्ययन करने पर हमने पाया कि राहु के अधिष्ठाता ‘काल’ हैं और केतु के अधिष्ठाता नाग हैं। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राहु को सांप का मुंह और केतु को सांप की पूंछ माना जाता है, जब जन्म कुंडली में बाकी ग्रह राहु और केतु के बीच आ जाते हैं, तो इस संयोजन को काल सर्प योग कहा जाता है जातक की जन्म कुंडली में राहु केतु जिस स्थान पर विराजमान होता है उस घर के फल को नष्ट कर देता है, जातक उस भाव से पीड़ित हो जाता है और उसके जीवन में कई उतार-चढ़ाव और संघर्ष आते हैं।
कालसर्प योग को अशुभ माना जाता है। कालसर्प योग, 12 प्रकार के होते हैं ऋग्वेद की कथा के अनुसार सागर मंथन के समय स्वरभानु दैत्य ने अमृत पिया था, सूर्य चंद्र के वर्णन पर भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से स्वरभानु दैत्य को दो भागों में विभाजित कर दिया और सिर का नाम था राहु और धड़ का नाम केतु था। इसे रखा गया, अमृत पीने से अमर हो गया, ब्रह्मा जी ने स्वरभानु को वरदान दिया कि उन्हें ग्रह प्रणाली में स्थान मिला।
कालसर्प योग कैसे बनता है ?
कुंडली में कालसर्प योग के बारें में भी ज्योतिष बेहद ध्यान देते हैं। कालसर्प तब होता है जब राहु-केतु के मध्य सातों ग्रह हो। सरल शब्दों में जब जातक की कुंडली में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र और शनि राहु और केतु के बीच आ जाए तब ‘कालसर्प योग’ निर्मित होता है। कुंडली के अनुसार राहु केतु राक्षस ग्रह है और कोई भी राक्षस अपना दुष्प्रभाव नहीं छोड़ता। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार राहु केतु कुंडली के अंदर कई दोष पैदा करता है।
काल सर्प दोष के लक्षण :
कालसर्प दोष के कारण सपने में सर्प का दिखना खाने में अधिक बाल आना नींद में चमकना और बनते बनते काम बिगाड़ना कालसर्प दोष का मुख्य लक्षण है इस दोष की वजह से संतान उत्पत्ति में बाधा, निराशा, अवसाद, असफलता आदि का सामना करना पड़ता है।
कालसर्प दोष का निवारण
कालसर्प दोष है तो उसका समाधान भी है, आज इस संसार में जो कुछ भी है वह वेदों की देन है। और ऋषियों को भगवान का जप और पूजा करने से कई शक्तियां मिलीं, हम भगवान की पूजा और पूजा से भी कई समस्याओं को दूर कर सकते हैं।
कालसर्प पूजा क्या है ?
शास्त्रों के अनुसार राहु और केतु छाया ग्रह हैं, जो जन्मकुंडली में हमेशा एक दूसरे के आमने-सामने होते हैं, यदि राहु केतु के बीच में सभी ग्रह हों तो पूर्णकालिक सर्प दोष होता है और एक ग्रह बाहर हो तो आंशिक काल नाग दोष उज्जैन तीर्थ नगरी है। यही महाकाल स्वयं विराजमान हैं। मृत्युलोक के अधिपति भगवान महाकाल हर समय हारने वाले हैं और साथ ही यह महाकाल की नगरी है। इसलिए यहां सच्चे मन से की गई पूजा भगवान शिव के परिवार की कृपा के साथ-साथ विशेष फलदायी होती है और इसे करने वाले पर अन्य देवी-देवताओं की भी कृपा प्राप्त होती है।
कालसर्प पूजा किसको करवानी चाहिए?
जन्म कुंडली में जातक राहु केतु से पीड़ित हो अपने व्यापार को स्थापित नहीं कर पा रहा हो जातक को अपने जीवन में उतार-चढ़ाव का सामना अधिक करना पड़ता है बार-बार कार्य करने के बाद भी असफलता की प्राप्ति हो रही हो।
काल सर्प योग से बचने के उपाय : महाकालेश्वर के ऊपरी तल पर भगवान नागचंद्रेश्वर का मंदिर है इसीलिए महाकाल वन मे काल सर्प दोष पूजा कराने से विशेष फल और मनोकामना की पूर्ति होती है जिन व्यक्तियों के जीवन में निरंतर संघर्ध बना रहता हो, जीवन भर घर, बहार, काम काज, स्वास्थ्य, परिवार, नोकरी, व्यवसाय आदि की परेशानियों से सामना करना पड़ता है ! बैठे बिठाये बिना किसी मतलब की मुसीबते जीवन भर परेशान करती है, कुंडली में बारह प्रकार के काल सर्प पाए जाते है, यह बारह प्रकार राहू और केतु की कुंडली के बारह घरों की अलग अलग स्थिति पर आधारित होती है, आपकी जन्म पत्रिका में कौन सा कालसर्प दोष है यहां जानने के लिए किसी विद्वान ब्राह्मण को अपनी जन्म पत्रिका दिखाएं पत्रिका दिखाने के लिए आचार्य प्रशान्त गुरुजी से अभी संपर्क करें और सभी प्रकार के कालसर्प दोष का निदान एवं निराकरण कराएं।
1 अनंत कालसर्प योग:
जब लग्न में राहु और सप्तम भाव में केतु हो और उनके बीच समस्त अन्य ग्रह इनके मध्या मे हो तो अनंत कालसर्प योग बनता है। इसके कारण जातक को जीवन भर मानसिक शांति नहीं मिलती। वह सदैव अशान्त क्षुब्ध परेशान रहता है।
2 कुलिक कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के व्दितीय भाव में राहु और अष्टम भाव में केतू हो तथा समस्त उनके बीच हों, तो यह योग कुलिक कालसर्प योंग कहलाता है।
3 वासुकी कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के तीसरे भाव में राहु और नवम भाव में केतु हो और उनके बीच सारे ग्रह हों तो यह योग वासुकि कालसर्प योग कहलाता है।
4 शंखपाल कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के चौथे भाव में राहु और दसवे भाव में केतु हो और उनके बीच सारे ग्रह हों तो यह योग शंखपाल कालसर्प योग कहलाता है।
5 शंखपाल कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के चौथे भाव में राहु और दसवे भाव में केतु हो और उनके बीच सारे ग्रह हों तो यह योग शंखपाल कालसर्प योग कहलाता है।
6 पद्म कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के पांचवें भाव में राहु और ग्याहरहवें भाव में केतु हो और समस्त ग्रह इनके बीच हों तो यह योग पद्मकालसर्प योग कहलाताहै।
7 कुलिक कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के छठे भाव में राहु और बारहवें भाव में केतु हो और समस्त ग्रह इनके बीच कैद हों तो यह योग महापद्म कालसर्प योग कहलाता है।
8 तक्षक कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के सातवें भाव में राहु और केतु लग्न में हो तथा बाकी के सारे इनकी कैद मे हों तो इनसे बनने वाले योग को तक्षक कालसर्प योग कहते है
9 कर्कोटक कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के अष्टम भाव में राहु और दुसरे भाव में केतु हो और सारे ग्रह इनके मध्य मे अटके हों तो इनसे बनने वाले योग को कर्कोटक कालसर्प योग कहते है
10 शंखनाद कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के नवम भाव में राहु और तीसरे भाव में केतु हो और सारे ग्रह इनके मध्य अटके हों तो इनसे बनने वाले योग को शंखनाद कालसर्प योग कहते है।
11 पातक कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के दसवें भाव में राहु और चौथे भाव में केतु हो और सभी सातों ग्रह इनके मध्य मे अटके हों तो यह पातक कालसर्प योग कहलाता है।
12 विषाक्तर कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के ग्याहरहवें भाव में राहु और पांचवें भाव में केतु हो और सारे ग्रह इनके मध्य मे अटके हों तो इनसे बनने वाले योग को विषाक्तर कालसर्प योग कहते है।
13 शेषनाग कालसर्प योग:
जब जन्मकुंडली के बारहवें भाव में राहु और छठे भाव में केतु हो और सारे ग्रह इनके मध्य मे अटके हों तो इनसे बनने वाले योग को शेषनाग कालसर्प योग कहते है।
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मंगल ग्रह यदि जन्मकुंडली के लग्न, चतुर्थ भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव, द्वादश भाव में हो तो कुंडली को मांगलिक माना जाता है, ऐसा होने पर ऐसे जातक का विवाह भी मांगलिक स्त्री या पुरुष से ही करना चाहिए|
इसी प्रकार शनि देव यदि जन्मकुंडली के लग्न, चतुर्थ भाव, सप्तम भाव, अष्टम भाव, द्वादश भाव में हो या दृष्टिगत भी हो तो कुंडली में मांगलिक योग का परिहार हो जाता है, सभी मांगलिक कुंडलियो में मांगलिक दोष हो
ऐसा जरुरी नहीं होता है, लोग व्यर्थ में मांगलिक योग सुन के भयभीत हो जाते है, जबकि मंगल ग्रह तो शुभ कार्य, भूमि, ऋणहरता एवं फल प्रदान करने वाले देवता है, कुंडली में मंगल जब ख़राब होता है तब इन्सान , कुछ दोगल होजाता है ,
और यही कारन है की वहा अपने जीवन में अक्सर सफल होता है, एसा इन्सान मोम की तरह पिघल ता रहता है , या पत्थर की तरह रहकर हमेंशा दूसरो को चौट देता रहता है ,जब जब मंगल को चन्द्र - सूर्य का साथ नहीं मिलता तब वहा नीच का
होजाता है नीच का मंगल सब का शत्रु होता है ,जातक धर्म के विरुध काम करता है या करवाता है , फिर ऐसे जातक की म्रत्यु हतियार या किसी लम्बी बीमारी से होतीहै , कुंडली के कुछ बेठे मंगल ख़राब और कुछ बहुत अच्छे भी होते है|
उज्जैन में मंगल भात पूजन इसके आलावा त्वरित उपाय हेतु - मंगल भातपूजन करवाना चाहिए, भात पूजा सम्पूर्ण विश्व में केवल उज्जैन अवंतिका क्षेत्र में होती है, यहाँ स्कंधपुराण में अवंतिका खंड के अनुसार भगवान शिव के मस्तक के पसीने की बूंद पृथ्वी पर उज्जैन अवन्तिका क्षेत्र में गिरने से भगवान श्री महामंगल का जन्म हुआ, भगवान श्री महामंगल अंगार के सामान लालवर्ण वाले रक्ताक्ष, भूमिपुत्र, आदि नामो से जाने जाते है, भगवान श्री महामंगल के मंदिर के शिखर से कर्क रेखा गुजरती है. और ये मंदिर आती प्राचीन है, यहाँ करायी गयी पूजा से मंगल दोष का परिहार होता है6263385149 मिलती हैं।
पित्र दोष पूजन निवारण और इस पूजन से क्या क्या फल यजमान को प्राप्त होता है मुख्यपितृदोष तीन प्रकार का होता है
1 त्रिपिंडी का पूजन होता है विष्णु लोक के पितरों के लिए सात्विक पिंड अर्पण करते हैं जो उनको विष्णुलोक में प्राप्त होता है ब्रह्मलोक के पितरों के लिए राजसी पिंडअर्पण करते हैं जॉन को ब्रह्मलोक में प्राप्त होता हैऔर रूद्र लोग
के पितरों के लिए तामसिक अर्पण करते हैं जो उनको रूद्र लोक में प्राप्त होता है इस पूजन के करने से तीनो लोग के पुत्र संतुष्ट होते हैं और कुटुंब परिवार को अच्छा आशीर्वाद प्रदान करते हैं जिससे घर में खुशहाली सुख शांति अ
अन्न का धन का लक्ष्मी का भंडार रहता है इस पूजन को अगर कुंडली में दोष नहीं हो तो भी राजी खुशी से भी पितरों की कृपा आशीर्वाद पाने के लिए किया जा सकता है
2 पितृदोष में दूसरे प्रकार से जो पितृदोष होता है जिसको नारायण वली श्राद्ध पूजन कहते हैं यह उन पितरों के लिए होता है जो प्रेत की योनि में भटक रहे होते हैं जो अधोगति में मृत्यु होती है जैसे एक्सीडेंट आत्महत्या
सर्प के काटने से करंट से जल में डूब के और अधोगति में जो चले जाते हैं उन पितरों के लिए नारायण बलि का विधान किया जाता है जिससे वह प्रेत की योनि से निवारण होकर पितरों की श्रेणी में आते हैं उनको विष्णु लोक की प्राप्ति होती है
3 पितृदोष का तीसरा विधान यह है यह विधान 3 दिनों का होता है इस विधान का नाम नागवली नारायण वलि है इस विधान में पितरों को सर्प की योनि में बहुत सालों तक भटकना पड़ता है क्योंकि सर्प की आयु बहुत लंबी होती है इस विधान
में 3 दिनों तक पूजा होती है यह पूजन किस लिए किया जाता है इस पूजन का मुख्य कारण यह है कि जिस परिवार में संतान आदी उत्पन्न नहीं हो रही हो तथा घर में ग्रह कलेश हो रहा हो इस पूजन करने से संतान इत्यादि का सुख प्राप्त किया
जा सकता है इस पूजन की अधिक जानकारी के लिए पंडित जी से कॉल पर चर्चा करें यह विधान पितरों का सबसे बड़ा विधान हा जाता है
पितृदोष और कालसर्पदोष का सबसे प्राचीन स्थान सिद्धवट घाट है यहीं पर पितरों को मुक्ति प्रदान होती है इसलिए पित्र दोष सिद्धवट घाट पर होता है यहां बैकुंठ द्वार है पितरों को वैकुंठ की प्राप्ति होती
है
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महर्षि नारद के अनुसार :- अनेन विधिनां सम्यग्वास्तुपूजां करोति य:। आरोग्यं पुत्रलाभं च धनं धान्यं लभेन्नदर:॥ अर्थात्ï इस विधि से सम्यक प्रकार से जो वास्तु का पूजन करता है, वह आरोग्य, पुत्र, धन, धन्यादि का लाभ प्राप्त करता है। ह प्रवेश के पूर्व वास्तु शांति कराना शुभ होता है। इसके लिए शुभ नक्षत्र वार एवं तिथि इस प्रकार हैं- शुभ वार- सोमवार, बुधवार, गुरुवार, व शुक्रवार शुभ हैं। शुभ तिथि- शुक्लपक्ष की द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी एवं त्रयोदशी। शुभ नक्षत्र- अश्विनी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, उत्ताफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, रोहिणी, रेवती, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, स्वाति, अनुराधा एवं मघा। अन्य विचार- चंद्रबल, लग्न शुद्धि एवं भद्रादि का विचार कर लेना चाहिए।
क्या होती हैं? गृहशांति पूजन न करवाने से हानियां|
गृहवास्तु दोषों के कारण गह निर्माता को तरह-तरह की विपत्तियों का सामना करना पडता है। यदि गृहप्रवेश के पूर्व गृहशांति पूजन नहीं किया जाए तो दुस्वप्न आते हैं, अकालमृत्यु, अमंगल संकट आदि का भय हमेशा रहता है। गृहनिर्माता को भयंकर
ऋणग्रस्तता, का समना करना पडता है, एवं ऋण से छुटकारा भी जल्दी से नहीं मिलता, ऋण बढता ही जाता है। घर का वातावरण हमेशा कलह एवं अशांति पूर्ण रहता है। घर में रहने वाले लोगों के मन में मनमुटाव बना रहता है। वैवाहि जीवन भी
सुखमय नहीं होता। उस घर के लोग हमेशा किसी न किसी बीमारी से पीडित रहते है, तथा वह घर हमेशा बीमारीयों का डेरा बन जाता है। गहनिर्माता को पुत्रों से वियोग आदि संकटों का सामना करना पड सकता है। जिस गृह में वास्तु दोष आदि होते है,
उस घर मे बरकत नहीं रहती अर्थात् धन टिकता नहीं है। आय से अधिक खर्च होने लगता है। जिस गृह में बलिदान तथा ब्राहमण भोजन आदि कभी न हुआ हो ऐसे गृह में कभी भी प्रवेश नहीं करना चाहिए। क्योंकि वह गृह आकस्मिक विपत्तियों को प्रदान
करता है।
?जानिए गृहशांति पूजन करवाने से लाभ|
यदि गृहस्वामी गृहप्रवेश के पूर्व गृहशांति पूजन संपन्न कराता है, तो वह सदैव सुख को प्राप्त करता है। लक्ष्मी का स्थाई निवास रहता है, गृह निर्माता को धन से संबंधित ऋण आदि की समस्याओं का सामना नहीं करना पडता है। घर का वातावरण
भी शांत, सुकून प्रदान करने वाला होता है। बीमारीयों से बचाव होता है। घर मे रहने वाले लोग प्रसन्नता, आनंद आदि का अनुभव करते है। किसी भी प्रकार के अमंगल, अनिष्ट आदि होने की संभावना समाप्त हो जाती है। घर में देवी-देवताओं का वास होता है, उनके प्रभाव से भूत-प्रेतादि की बाधाएं नहीं होती एवं उनका जोर नहीं चलता। घर में वास्तुदोष नहीं होने से एवं गृह वास्तु देवता के प्रसन्न होने से हर क्षेत्र में सफलता मिलती है। सुसज्जित भवन में गृह स्वामी अपनी धर्मपत्नी तथा परिवारीकजनों के साथ मंगल गीतादि से युक्त होकर यदि नवीन गृह में प्रवेश करता है तो वह अत्यधिक श्रैष्ठ फलदायक होता है। 6263385149
यदि लड़के अथवा लड़की की कुंडली में सप्तम भाव अथवा बारहवां भाव क्रूर ग्रहों से पीडि़त हो अथवा शुक्र, सूर्य, सप्तमेष अथवा द्वादशेष, शनि से आक्रांत हों। अथवा मंगलदोष हो अर्थात वर-कन्या की कुंडली मे १,२,४,७,८,१२ इन भावों में मंगल हो तो यह
वैवाहिक विलंब, बाधा एवं वैवाहिक सुखों में कमी करने वाला योग होता है।
राहु सर्प का मुख माना गया है और केतु सर्प की पूँछ। काल का अर्थ है मृत्यु यदि अन्य ग्रह योग प्रबल ना हों तो ऐसे जातक की शीघ्र ही मृत्यु भी हो जाती है और यदि जीवित रहता भी है तो प्रायः मृत्युतुल्य कष्ट भोगता है। इस योग के प्रमुख लक्षण
एवं प्रत्यक्ष प्रभाव मानसिक अशांति के रूप में प्रकट होता है। भाग्योदय में बाधा, संतति में अवरोध, गृहस्थ जीवन में नित्य प्रायः कलह, परिश्रम का फल आशानुरूप नही मिलना,दुःस्वप्न आना, स्वप्न में सर्प दिखना तथा मन में कुछ अशुभ होने की
आशंका बने रहना इसके प्रमुख उदाहरण ।
कुंभ विवाह जब चंद्र-तारा अनुकूल हों, तब तथा अर्क विवाह शनिवार, रविवार अथवा हस्त नक्षत्र में कराना ऐसा शास्त्रमति है।
धर्म सिंधु ग्रंथ में तत्संबंध में अर्क-विवाह (लड़के के लिए) एवं कुंभ विवाह (लड़की
के लिए) कराना चाहिए।
मान्यता है कि किसी भी जातक (वर) की कुंडली में इस तरह के दोष हों, तो सूर्य कन्या अर्क वृक्ष से व्याह करना, अर्क विवाह कहलाता है। कहते हैं इस प्रक्रिया से दाम्पत्य सुखों में वृद्धि होती है और वैवाहिक विलंब दूर होता है। इच्छित
विवाह याने लव मेरिज करने में भी सफलता मिलती है।
इसी तरह किसी कन्या के जन्मांग इस तरह के दोष होने पर भगवान विष्णु के साथ व्याह कराया जाता है। इसलिए कुंभ विवाह क्योंकि कलश में विष्णु होते हैं। अश्वत्थ विवाह (पीपल पेड़ से विवाह)- गीता में लिखा श्वृक्षानाम् साक्षात
अश्वत्थोहम्ं्य अर्थात वृक्षों में मैं पीपल का पेड़ हूं। विष्णुप्रतिमा विवाह- ये भगवान विष्णु की स्वर्ण प्रतिमा होती है, जिसका अग्नी उत्तारण कर प्रतिष्ठा पश्चात वैवाहिक प्रक्रिया संकल्प सहित पूरी करना, ऐसा शास्त्रमति है। मगर ध्यान रहे बहुत सारे विद्वान केले, तुलसी, बेर आदि के पेड़ से ये प्रक्रियाएं निष्पादित करते हैं जो कतई शास्त्रसम्मत नहीं हैं। अतः विद्वान यजमान, आचार्य की योग्यता को देखकर यह प्रक्रिया करवावें। क्यों कि यह जीवन में एक बार होती है। हमारे द्वारा संपन्न कराया जाता है 6263385149
महामृत्युंजय मंत्र का जप क्यों किया जाता है?
शास्त्रों और पुराणों में असाध्य रोगों से मुक्ति और अकाल मृत्यु से बचने के लिए महामृत्युंजय जप करने का विशेष उल्लेख मिलता है।
महामृत्युंजय भगवान शिव को खुश करने का मंत्र है। इसके प्रभाव से इंसान मौत के मुंह में जाते-जाते बच जाता है, मरणासन्न रोगी भी महाकाल शिव की अद्भुत कृपा से जीवन पा लेता है। बीमारी, दुर्घटना, अनिष्ट ग्रहों के प्रभावों से दूर
करने, मौत को टालने और आयु बढ़ाने के लिए सवा लाख महामृत्युंजय मंत्र जप करने का विधान है।
जब व्यक्ति जप न कर सके, तो मंत्र जप किसी योग्य पंडित से भी कराया जा सकता है।
समुद्र मंथन के बहुप्रचलित आख्यान देवासुर संग्राम के समय शुक्राचार्य ने अपनी यज्ञशाला मे इसी महामृत्युंजय के अनुष्ठानों का उपयोग देवताओं द्वारा मारे गए राक्षसों को जीवित करने के लिए किया था। इसलिए इसे मृत संजीवनी के
नाम से भी जाना जाता है। महामत्युंजय मंत्र इस प्रकार है ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ !!
पद्मपुराण में महर्षि मार्कण्डेय ने भी महामृत्युंजय मंत्र व स्त्रोत का वर्णन किया है। इस पुराण में मिले वर्णन के अनुसार महामुनि मृकण्डु के कोई संतान नहीं थी। इसलिए उन्होंने पत्नी सहित कठोर तप करके भगवान शंकर को खुश किया।
भगवान शंकर ने प्रकट होकर कहा- तुमको पुत्र प्राप्ति होगी पर यदि गुणवान, सर्वज्ञ, यशस्वी, धार्मिक और समुद्र की तरह ज्ञानी पुत्र चाहते हो, तो उसकी आयु केवल 16 साल की होगी और उत्तम गुणों से हीन, अयोग्य पुत्र चाहते हो, तो
उसकी उम्र 100 साल होगी। इस पर मुनि मृकुण्डु ने कहा- मैं गुण संपन्न पुत्र ही चाहता हूं, भले ही उसकी आयु छोटी क्यों न हो। मुझे गुणहीन पुत्र नहीं चाहिए। मुनि ने बेटे का नाम मार्कण्डेय रखा। जब वह 16 वे साल में प्रवेश हुआ,
तो मृकुंड चिंतित हुए और उन्होंने अपनी चिंता को मार्कण्डेय को बताया। मार्कण्डेय ने भगवान शंकर को खुश करने के लिए तप किया तो भगवान शंकर शिवलिंग में से प्रकट हो गए। उन्होंने गुस्से से यमराज की तरफ देखा, तब यमराज
ने डरकर बालक मार्कण्डेय को न केवल बंधन मुक्त कर दिया, बल्कि अमर होने का वरदान भी दिया और प्रणाम करके चले गए। अनुष्ठान कराने के लिए संपर्क करे।
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हिंदू धर्मशास्त्रों के मुताबिक भगवान शिव का पूजन करने से सभी मनोकामनाएं शीघ्र ही पूर्ण होती हैं।
भगवान शिव को शुक्लयजुर्वेद अत्यन्त प्रिय है कहा भी गया है वेदः शिवः शिवो वेदः। इसी कारण ऋषियों ने शुकलयजुर्वेदीय रुद्राष्टाध्यायी से रुद्राभिषेक करने का विधान शास्त्रों में बतलाया गया है यथा
रुद्राभिषेक क्यों करते हैं?
रुद्राष्टाध्यायी के अनुसार शिव ही रूद्र हैं और रुद्र ही शिव है। रुतम्-दु:खम्, द्रावयति-नाशयतीतिरुद्र: अर्थात रूद्र रूप में प्रतिष्ठित शिव हमारे सभी दु:खों को शीघ्र ही समाप्त कर देते हैं। वस्तुतः जो दुःख हम भोगते है उसका कारण हम सब स्वयं ही है
हमारे द्वारा जाने अनजाने में किये गए प्रकृति विरुद्ध आचरण के परिणाम स्वरूप ही हम दुःख भोगते हैं।
रुद्राभिषेक का आरम्भ कैसे हुआ?
प्रचलित कथा के अनुसार भगवान विष्णु की नाभि से उत्पन्न कमल से ब्रह्मा जी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्माजी जबअपने जन्म का कारण जानने के लिए भगवान विष्णु के पास पहुंचे तो उन्होंने ब्रह्मा की उत्पत्ति का रहस्य बताया और यह भी कहा कि
मेरे कारण ही आपकी उत्पत्ति हुई है। परन्तु ब्रह्माजी यह मानने के लिए तैयार नहीं हुए और दोनों में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध से नाराज भगवान रुद्र लिंग रूप में प्रकट हुए। इस लिंग का आदि अन्त जब ब्रह्मा और विष्णु को कहीं पता नहीं चला
तो हार मान लिया और लिंग का अभिषेक किया, जिससे भगवान प्रसन्न हुए। कहा जाता है कि यहीं से रुद्राभिषेक का आरम्भ हुआ।
संस्कृत श्लोक जलेन वृष्टिमाप्नोति व्याधिशांत्यै कुशोदकै दध्ना च पशुकामाय श्रिया इक्षुरसेन वै। मध्वाज्येन धनार्थी स्यान्मुमुक्षुस्तीर्थवारिणा। पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति पयसा चाभिषेचनात।। बन्ध्या वा काकबंध्या वा मृतवत्सा यांगना। जवरप्रकोपशांत्यर्थम् जलधारा
शिवप्रिया।। घृतधारा शिवे कार्या यावन्मन्त्रसहस्त्रकम्। तदा वंशस्यविस्तारो जायते नात्र संशयः। प्रमेह रोग शांत्यर्थम् प्राप्नुयात मान्सेप्सितम। केवलं दुग्धधारा च वदा कार्या विशेषतः। शर्करा मिश्रिता तत्र यदा बुद्धिर्जडा भवेत्। श्रेष्ठा बुद्धिर्भवेत्तस्य कृपया शङ्करस्य च!! सार्षपेनैव तैलेन शत्रुनाशो भवेदिह! पापक्षयार्थी मधुना निर्व्याधिः सर्पिषा तथा।। जीवनार्थी तू पयसा श्रीकामीक्षुरसेन वै। पुत्रार्थी शर्करायास्तु रसेनार्चेतिछवं तथा। महलिंगाभिषेकेन सुप्रीतः शंकरो मुदा। कुर्याद्विधानं रुद्राणां यजुर्वेद्विनिर्मितम्। अर्थात जल से रुद्राभिषेक करने पर — वृष्टि होती है। कुशा जल से अभिषेक करने पर — रोग, दुःख से छुटकारा मिलती है। दही से अभिषेक करने पर — पशु, भवन तथा वाहन की प्राप्ति होती है। गन्ने के रस से अभिषेक करने पर — लक्ष्मी प्राप्ति मधु युक्त जल से अभिषेक करने पर — धन वृद्धि के लिए। तीर्थ जल से अभिषेकक करने पर — मोक्ष की प्राप्ति होती है। इत्र मिले जल से अभिषेक करने से — बीमारी नष्ट होती है । दूध् से अभिषेककरने से — पुत्र प्राप्ति,प्रमेह रोग की शान्ति तथा मनोकामनाएं पूर्ण गंगाजल से अभिषेक करने से — ज्वर ठीक हो जाता है। दूध् शर्करा मिश्रित अभिषेक करने से — सद्बुद्धि प्राप्ति हेतू। घी से अभिषेक करने से — वंश विस्तार होती है। सरसों के तेल से अभिषेक करने से — रोग तथा शत्रु का नाश होता है। शुद्ध शहद रुद्राभिषेक करने से —- पाप क्षय हेतू। इस प्रकार शिव के रूद्र रूप के पूजन और अभिषेक करने से जाने-अनजाने होने वाले पापाचरण से भक्तों को शीघ्र ही छुटकारा मिल जाता है और साधक में शिवत्व रूप सत्यं शिवम सुन्दरम् का उदय हो जाता है उसके बाद शिव के शुभाशीर्वाद सेसमृद्धि, धन-धान्य, विद्या और संतान की प्राप्ति के साथ-साथ सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाते हैं हमारे वैदिक ब्राम्हणो से रुद्राभिषेक सम्पन्न कराया जाता
बृहस्पति और राहु जब साथ होते हैं या फिर एक दूसरे को किन्ही भी भावो में बैठ कर देखते हो, तो गुरू चाण्डाल योग निर्माण होता है।
चाण्डाल का अर्थ निम्नतर जाति है। कहा गया कि चाण्डाल की छाया भी ब्राह्मण को या गुरू को अशुद्ध कर देती है। गुरु चंडाल योग को संगति के उदाहरण से आसानी से समझ सकते हैं। जिस प्रकार कुसंगति के प्रभाव से श्रेष्ठता या सद्गुण भी
दुष्प्रभावित हो जाते हैं। ठीक उसी प्रकार शुभ फल कारक गुरु ग्रह भी राहु जैसे नीच ग्रह के प्रभाव से अपने सद्गुण खो देते है। जिस प्रकार हींग की तीव्र गंध केसर की सुगंध को भी ढक लेती है और स्वयं ही हावी हो जाती है, उसी प्रकार राहु अपनी
प्रबल नकारात्मकता के तीव्र प्रभाव में गुरु की सौम्य, सकारात्मकता को भी निष्क्रीय कर देता है। राहु चांडाल जाति, स्वभाव में नकारात्मक तामसिक गुणों का ग्रह है, इसलिए इस योग को गुरु चांडाल योग कहा जाता है।
जिस जातक की कुंडली में गुरु चांडाल योग यानि कि गुरु-राहु की युति हो वह व्यक्ति क्रूर, धूर्त, मक्कार, दरिद्र और कुचेष्टाओं वाला होता है।
ऐसा व्यक्ति षडयंत्र करने वाला, ईष्र्या-द्वेष, छल-कपट आदि दुर्भावना रखने वाला एवं कामुक प्रवत्ति का होता है, उसकी अपने परिवार जनो से भी नही बन पाती तथा वह खुद को अकेला महसूस करने लग जाता है और उसका मन हमेशा व्याकुल रहता है।
उपाय :-
गुरु चांडाल योग के जातक के जीवन पर जो भी दुष्प्रभाव पड़ रहा हो उसे नियंत्रित करने के लिए जातक को भगवान शिव की आराधना करनी चाहिए। एक अच्छा ज्योतिषी कुण्डली देख कर यह बता सकता है कि हमे गुरु को शांत करना उचित रहेगा या
राहु के उपाय जातक से करवाने पड़ेंगे। अगर चाण्डाल दोष गुरु या गुरु के मित्र की राशि या गुरु की उच्च राशि में बने तो उस स्थिति में हमे राहु देवता के उपाय करके उनको ही शांत करना पड़ेगा ताकि गुरु हमे अच्छे प्रभाव दे सके। राहु देवता की शांति
के लिए मंत्र-जाप पुरे होने के बाद हवन करवाना चाहिए तत्पश्चात दान इत्यादि करने का विधान बताया गया है. अगर ये दोष गुरु की शत्रु राशि में बन रहा हो तो हमे गुरु और राहु देवता दोनों के उपाय करने चाहिए गुरु-राहु से संबंधित मंत्र-जाप, पूजा, हवन
तथा दोनों से सम्बंधित वस्तुओं का दान करना चाहिए। 6263385149
चंद्र-राहु या सूर्य-राहु की युति को ग्रहण योग कहते हैं।
यदि बुध की युति राहु के साथ है तब यह जड़त्व योग है। इन योगों के प्रभाव स्वरुप भाव स्वामी की स्थिति के अनुसार ही अशुभ फल मिलते हैं।
वैसे चंद्र की युति राहु के साथ कभी भी शुभ नही मानी जाती है।
इस युति के प्रभाव से माता या पत्नी को कष्ट होता है, मानसिक तनाव रहता है, आर्थिक परेशानियाँ, गुप्त रोग, भाई-बांधवों से बैर-विरोध, परिजनों का व्यवहार परायों जैसा होने के फल मिल सकते हैं।
अतः शास्त्रीय विधान से शांति अवश्य करवाएं तथा शिव आराधना अवश्य करें। 6263385149
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